विशेष लेख : शब्दों के नए वायरस….

0

तारन प्रकाश सिन्हा…..

 

रायपुर — भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी छत्तीसगढ़ के जनसंपर्क आयुक्त तारन प्रकाश सिन्हा वैश्विक महामारी के दौर में सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर लगातार लेखन के माध्यम से समाज को सकारात्मक सोच भेंट कर रहे हैं। भावपूर्ण, तथ्यपरक, सटीक लेखन क्षमता के धनी श्री सिन्हा ने सोशल मंच फेसबुक पर समाज के लिए अपने विचार साझा किए हैं। उनके विचार को साभार प्रसार देने का यह प्रयास भी सामाजिक सरोकार का अंग समझा जाय। प्रस्तुत हैं श्री सिन्हा के समाज मार्गदर्शी विचार –
चीन ने सख्त ऐतराज जताया है कि कोविड-19 को चाइनीज या वुहान वायरस क्यों कहा जा रहा है ! बावजूद इसके कि दुनिया का सबसे पहला मामला वुहान में ही सामने आया। चीन का तर्क है कि जब अब तक इस नये वायरस के जन्म को लेकर चल रहे अनुसंधानों के समाधानकारक नतीजे ही सामने नहीं आ पाए हैं, तब अवधारणाओं पर आधारित ऐसे शब्दों को प्रचलित क्यों किया जा रहा है, जो खास तरह का नरेटिव सेट करते हों।
चीन शब्दों की शक्ति को पहचानता है। किसी समाज के लिए प्रयुक्त होने वाले विशेषणों के असर को जानता है। इसीलिए वह अपनी छवि को लेकर इतना सतर्क है।
जाने-अनजाने में हम हर रोज विभिन्न समाजों, समुदायों, संप्रदायों अथवा व्यक्तियों के लिए इसी तरह के अनेक विशेषणों का प्रयोग करते रहते हैं, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। हमारे द्वारा गढे़ जा रहे विशेषण कब रूढियों का रूप ले लेते हैं, पता ही नहीं चलता।
किसी घटना विशेष अथवा परिस्थितियों में उपजा कोई दूषित विचार कब धारणा बन जाता है और कब वह धारणा सदा के लिए रूढ़ हो जाती है, पता ही नहीं चलता। और कब हम पूर्वाग्रही होकर इन संक्रामक आग्रहों के वाहक बन जाते हैं, यह भी नहीं। यह भी नहीं कि कब नयी तरह की प्रथाएं-कुप्रथाएं जन्म लेने लगती हैं।
अस्पृश्यता का विचार पता नहीं कब, कैसे और किसे पहली बार आया। पता नहीं कब वह संक्रामक होकर रूढ़ हो गया। कब कुप्रथा में बदल गया और कब इन कुप्रथाओं ने सामाजिक- अपराध का रूप धर लिया। उदाहरण और भी हैं…
जब यह कोरोना-काल बीत चुका होगा, तब हमारी यह दुनिया बदल चुकी होगी। इन नये अनुभवों से हमारे विचार बदल चुके होंगे। नयी सांस्कृतिक परंपराएं जन्म ले चुकी होंगी। तरह-तरह के सामाजिक परिवर्तनों का सिलसिला शुरू हो चुका होगा। इस समय हम एक नयी दुनिया के प्रवेश द्वार से गुजर रहे हैं।
ठीक यही वह समय है, जबकि हमें सोचना होगा कि हम अपनी आने वाली पीढी़ को कैसी दुनिया देना चाहते हैं। क्या अवैज्ञानिक विचारों, धारणाओं, पूर्वाग्रहों, कुप्रथाओं से गढी़ गई दुनिया ? बेशक नहीं। तो फिर हम इस ओर भी सतर्क क्यों नहीं हैं ! कोरोना से चल रहे युद्ध के समानांतर नयी दुनिया रचने की तैयारी क्यों नहीं कर रहे हैं ? हम अपने विचारों को अफवाहों, दुराग्रहों, कुचक्रों से बचाए रखने का जतन क्यों नहीं कर रहे ? हम अपने शब्द-संस्कारों को लेकर सचेत क्यों नहीं हैं ?
महामारी के इस दौर में हमारा सामना नयी तरह की शब्दावलियों से हो रहा है। ये नये शब्द भविष्य के लिए किस तरह के विचार गढ़ रहे हैं, क्या हमने सोचा है? क्वारंटिन, आइसोलेशन, सोशल डिस्टेंसिंग, लक्ष्मण रेखा…

परिस्थितिवश उपजे ये सारे शब्द चिकित्सकीय-शब्दावलियों तक ही सीमित रहने चाहिए। सतर्क रहना होगा कि सामाजिक शब्दावलियों में ये रूढ़ न हो जाएं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जब सोशल डिस्टेंसिंग के स्थान पर फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द के प्रचलन पर जोर देते हैं, तब वे इसी तरह के नये और छुपे हुए खतरों को लेकर आगाह भी कर रहे होते हैं….

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *