ब्राह्मण-भूमिहारों को चुन-चुन कर निपटाते शाह और मोदी! – हरिशंकर व्यास

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ब्राह्मण-भूमिहारों का सच आज दो टूक है। सच मोदी के खूटें से बंधे होने का। सच लात खाने के बावजूद बंधुआ होने का। बुद्धि होते हुए भी गोबर में जीने का। सचमुच स्थापित, स्वतंत्रचेता ब्राह्मणों-भूमिहारों को निपटाते हुए उनकी जगह नरेंद्र मोदी ने जिस बेफिक्री से निराकर चेहरों को टिकट दिया है उसके पीछे का सत्य यह मोदी अहंकार है कि ब्राह्मण- भूमिहार जाएंगे कहां! वे गुलाम हैं उनके खूटें के। तभी गजब जो जातिवादी राजनीति के गढ़ बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी ने न केवल आंख से आंख मिला कर बात करने में समर्थ ब्राह्मण-भूमिहारों के टिकट काटे, बल्कि बिहार-झारखंड में तो ब्राह्मण-भूमिहारों को लगभग निपटा दिया। डॉ. मुरली मनोहर जोशी, कलराज मिश्र, रविंद्र राय, रविंद्र पांडे, सतीश दुबे, सुमित्रा महाजन, सुषमा स्वराज, शांता कुमार, भुवन चंद्र खंडूरी, वाजपेयी परिवार के अनूप मिश्रा जैसे ब्राह्मण-भूमिहारों को मोदी-शाह-योगी ने ऐसे निपटाया है कि ब्राह्मण-भूमिहार न विरोध कर सकते हैं और न रो सकते हैं। अपने को आश्चर्य नहीं होगा यदि 23 मई को नागपुर में नितिन गडकरी भी चुपचाप निपटे हुए मिलें।
उत्तर भारत के गंगा-यमुना दोआब में ब्राह्मण-भूमिहारों की दुर्दशा सर्वाधिक गहरी है। पूरे उत्तर भारत में एक ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं है। मंत्री चेहरे दिखावे के हैं। बतौर मिसाल यूपी में योगी व उप मुख्यमंत्री मौर्य के मुकाबले में दिनेश शर्मा की बेचारी हैसियत पर सोचें। गौर करें कि संख्या बल में छोटी-छोटी जातियों, निषाद-मल्लाह-कुर्मी-राजभर की पार्टियों ने मोदी-योगी को आंख दिखा कर राजनीतिक जलवा बनाया। मोदी-योगी को धमका कर किसी ने तीन, किसी ने दो, किसी ने एक सीट ली और दस तरह के जातिगत फायदे गारंटेड कराए। ठीक विपरीत बनारस, पूर्वी यूपी से ले कर बिहार, झारखंड में राजनीतिक हल्ला बनाने में सर्वाधिक समर्थ ब्राह्मणों-भूमिहारों में रोना सुनाई दिया कि सुशील मोदी ने गिरिराज सिंह की सीट बदलवाई! पिछली बार भूमिहारों के तीन टिकट थे अब केवल एक और वह भी सीट बदल कर। या यह हकीकत कि ब्राह्मणों के केंद्र वाराणसी और उसके इर्दगिर्द मोदी-शाह को अति पिछड़ों (निषाद-कुर्मी-राजभर-मोदी) की गरज है न कि 12-15 प्रतिशत ब्राह्मण-भूमिहारों की। इसलिए क्योंकि ब्राह्मण-भूमिहारों ने तो हिंदू के झांसे में अपने को गिरवी, बंधुआ बना रखा है। ये भला कहां जाएंगें! निषाद-कुर्मी-जाट-यादव, अति पिछड़ी जातियां स्वतंत्र, खुद्दार हो गई हैं तो मोदी-शाह उन्हीं की लल्लोचप्पो करेंगे भला घर बंधे बंधुआ मजदूरों ब्राह्मण-भूमिहारों की क्या चिंता!

हां, ये जातिवादी बातें हैं। और हां, मैं ब्राह्मण हूं। आप कह सकते हैं मैं ब्राह्मण होने के नाते ब्राह्मण-भूमिहारों के राजनीतिक वजूद की चिंता कर रहा हूं। लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि इस चुनाव में भाजपा उम्मीदवारों की लिस्ट देख कर साफ लग रहा है कि मोदी-शाह उत्तर भारत में ब्राह्मण-भूमिहारों को वैसे ही उखाड़ देने वाले हैं, जैसे गुजरात में मुख्यमंत्री पद संभालने के बाद नरेंद्र मोदी ने किया था। मुख्यमंत्री बनने के बाद जब 2002 में पहली बार टिकट वितरण में मोदी निर्णायक बने तो आडवाणी-वाजपेयी पर भी वीटो कर नरेंद्र मोदी ने तब के सर्वाधिक दमदार ब्राह्मण विधायक-मंत्री हरेन पांड्या का टिकट कटाया। वह गुजरात से, भाजपा में ब्राह्मणों का वजूद खत्म होने की शुरुआत थी। बाद में हरेन पांड्या की हत्या हुई। फिर लोकसभा चुनाव में अहमदाबाद के सर्वाधिक लोकप्रिय, लोगों के काम करने वाले, सात दफा सांसद हुए हरिन पाठक का टिकट काटा। उनकी जगह उन परेश रावल को मोदी ने एमपी बनाया, जिनका ब्राह्मणों में आधार, समुदाय के लिए काम करना, खुद्दारी दिखाना वैसे ही निराकार है जैसे यूपी में अभी दिनेश शर्मा जैसे मंत्री का मामला है। हरेन पांड्या, हरिन पाठक, संजय जोशी तीनों को निपटा कर मोदी-शाह ने गुजरात में ब्राह्मणों की औकात दो कौड़ी की बंधुआ वाली ऐसी बनवाई कि कभी इस प्रदेश में 14 ब्राह्मण (1998-2002) विधायक, चार मंत्री (1998-2002) हुआ करते थे अब शायद एक ब्राह्मण मंत्री और चार-पांच विधायक होंगे जबकि प्रदेश में ब्राह्मणों की आबादी 10 से 12 प्रतिशत के बीच बताई जाती है। आखिरी चर्चित ब्राह्मण चेहरा जयनारायण व्यास का था, लेकिन वे भी अब निपट गए हैं।

वही पैटर्न, वहीं ऑपरेशन उत्तर भारत में मोदी-शाह ने इस चुनाव में अपनाया है। 2014 में राजनाथ सिंह, भाजपा हाईकमान, संघ सबकी चलती थी इसलिए टिकट के फैसले तब यथास्थिति में हुए। मगर इस चुनाव में मोदी-शाह सर्वेसर्वा है तो बिहार में भूमिहार की दो सीटें काट दीं, वाल्मिकीनगर से ब्राह्मण काट दिया। गिरिराज सिंह को नवादा की जगह बेगूसराय भेजा तो झारखंड में पांच बार जीते रविंद्र पांडे और प्रदेश अध्यक्ष रहे रविंद्र राय की छुट्टी। पांच सालों में एक-एक कर उत्तर भारत में कई ब्राह्मण नेता निपटे हैं फिर भले जयपुर में घनश्याम तिवाड़ी हों या देविरया में कलराज मिश्र या इंदौर में सुमित्रा महाजन। ये चेहरे क्योंकि अपने-अपने इलाके में, अपने-अपने राज्य में मोदी-शाह और उनके मनोनीत नेताओं-मुख्यमंत्रियों से ज्यादा सम्मानीय, दमदार हैं इसलिए इन्हें निपटा कर ब्राह्मण–भूमिहारों को राजनीति में खत्म करने का वही पैटर्न है जो गुजरात में हरेन पांड्या, हरिन पाठक, संजय जोशी, जयनारायण व्यास के निपटने से सधा।

यह सब ब्राह्मण–भूमिहारों को बंधुआ-मूर्ख बनाने की इस थीसिस के साथ है कि यदि मोदी नहीं तो हिंदू खतरे में। आरक्षण के झूठ का एक झुनझुना भी थमा दिया, इस एप्रोच से कि सत्ता-राजनीति से खत्म हो कर लो आरक्षण की भीख। हां, मोदी-शाह ने पांच सालों में डॉ. जोशी, शांता कुमार, खंडूरी से रविंद्र राय, सुमित्रा महाजन आदि चेहरों को जैसे कातर भाव लाइन में खड़े रखा वह स्थिति 2019 के चुनाव के बाद उत्तर भारत में ब्राह्मण-भूमिहारों को उस मुकाम पर पहुंचा देगी कि गिरिराज सिंह भी सुशील मोदी, भूपेंद्र यादव के दरवाजे बैठे मिलेंगे तो दिल्ली में बुद्धि, ब्राह्मण खुद्दारी वालो का दूर-दूर तक पता नहीं होगा।

यह सब देखते हुए मैं लगातार हैरानी की मनोदशा में हूं। मैंने 2014 में मोदी को समर्थन की गलती का प्रायश्चित चलाया हुआ है तो ब्राह्मण-भूमिहारों के मुकुल शुक्ला, परेश शर्मा, महेश पांडे, सुभाष व्यास, राकेश शर्मा आदि मित्रों, परिचितों का उलाहना मिला हुआ है कि आपको क्या हो गया? क्यों नहीं मोदी को देश की अनिवार्य बुराई मान समर्थन करते हैं? मुझे शनिवार को मुकुल शुक्ला के फोन ने बहुत सोचने को मजबूर किया। मुकुल हमउम्र अंग्रेजीदां आर्थिक पत्रकार हैं। मैं जब सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में उनसे बात करता था तो मोदी राज की आर्थिक-सामरिक दिशाहीनता, बरबादियों पर मुकुल की तल्खी होती थी लेकिन अभी परसों कहा कि सब बातें ठीक हैं लेकिन विकल्प क्या है। पप्पू को चुनेंगें?

यहीं दलील सबकी है। जब मैंने मुकुल से सीधे पूछा कि बतौर नागरिक, बतौर आर्थिक विशेषज्ञ, बतौर हिंदू पांच सालों में निजी तौर पर कौन सी प्राप्ति की तुम्हें फील है तो जवाब था मेरा जीना आसान होना मतलब नहीं रखता है लेकिन आगे ठीक होगा।

लब्बोलुआब विकल्प क्या? बार-बार के इस तर्क पर मैंने तब कहा मुकुल क्या लगता नहीं कि ब्राह्मण-भूमिहार इसी जुमले में बंधुआ बन कर पूरे उत्तर भारत में जीरो बनने वाली आत्महत्या करने वाले हैं? ब्राह्मण-भूमिहार बंधुआ बनने की ऐसी गोबर बुद्धि कैसे बना चुके हैं कि, जिससे पांच साल बरबादी हुई, झूठ बना वहीं देश की जरूरत है? परिवर्तन की जोखिम नहीं लेंगे और खूटें से बंधे रहेंगे। भला कैसे ऐसे गिरवी हो कर बंधे रहने की दलील उस ब्राह्मण-भूमिहार में है, जिसका चाणक्य, जिसकी हिम्मत रंक को राजा, राजा को रंक बनाने का सामर्थ्य लिए हुए रहा है!

मुकुल शुक्ला से इसका जवाब नहीं बन पड़ा। सत्तर के दशक में पके नेहरू-इंदिरा-कांग्रेस के विरोध की बुनावट में मुकुल का तर्क अंत तक बना रहा कि विकल्प नहीं है। यहीं वह कोर है, जिसने उत्तर भारत के ब्राह्मणों-भूमिहारों को नरेंद्र मोदी का चौकीदार बना रखा है। मैंने कुछ दिन पहले डॉ. सुब्रहमण्यम स्वामी के कहे पर लिखा था कि ब्राह्मण नहीं बने चौकीदार। डॉ. स्वामी ने अपने बौद्धिक बल की तासीर, संस्कार, जातीय गौरव में दो टूक शब्दों में बोला हुआ है कि मैं ब्राह्मण हूं, मैं नही हो सकता चौकीदार!

लेकिन अपने मुकुल, महेश पांडे, विष्णु, परेश, सुभाष याकि ब्राह्नण-भूमिहार समाज नरेंद्र मोदी की चौकीदारी का लठ्ठ उठाए हुए तर्क दे रहे हैं कि हमें नरेंद्र मोदी से इसलिए बंधा रहना चाहिए क्योंकि दूसरा खूंटा नहीं है।

यह तब है जब मोदी-शाह-योगी फरसा उठाए ब्राह्मणों की सियासी हत्या कर रहे हैं। यूपी-बिहार के गंगा-यमुना दोआब के ब्राह्मण-भूमिहारों की आंखें इतनी भी नहीं खुली हुई हैं, जो निषाद, कुर्मी, राजभर जैसी छोटी जातियों की छप्पन इंची छाती के प्रदर्शन से इनमें कुछ शर्म बने कि हमसे अच्छे तो ये। हम क्यों बंधुआ हैं?

हां, मायावती के राज में ब्राह्मणों का ठसका मोदी-योगी राज से ज्यादा रहा है। हां, भूमिहारों का कांग्रेस राज में हमेशा अधिक ठसका रहा। हां, अखिलेश-मुलायम ने जनेश्वर मिश्र का जैसा सम्मान किया उसका छटांग भी मोदी-शाह ने डॉ. जोशी का नहीं किया। हां, यूपी-बिहार-राजस्थान-मध्य प्रदेश-गुजरात सब तरफ गोविंद वल्लभ पंत से हितेंद्र देसाई, श्रीकृष्ण बाबू, हरिदेव जोशी, मोतीलाल वोरा, शुक्ला बंधु सबने सर्व हिंदू समाज, सभी जातियों का बराबर मान-सम्मान करते हुए हिंदुओं में कभी नहीं बनने दी पानीपत की तीसरी लड़ाई। कांग्रेस और नेहरू-गांधी के खूंटे से बंधे होते हुए भी इन सब ब्राह्मण-भूमिहार नेताओं ने हिंदू समाज में समरसता, हिंदू के साथ मुसलमान सबको साथ ले कर चलने की, शिष्टता, विनम्रता, राजकाज में ऐसी मिसाल बनाई है, वह राष्ट्र धर्म, वह देशभक्ति दिखलाई, जिसका पासंग भी मोदी-शाह-योगी की तासीर, सोच, शैली और पांच साल के अनुभव में नहीं है।

क्या यह सब गलत है? कोई दे तर्क कि कैसे गलत है? तभी समझ नहीं आता कि कैसे ब्राह्मण-भूमिहार ऐसे ताजा इतिहास को भूले हो सकते हैं? कैसे बुद्धि में ऐसा गोबर आ गया कि मोदी-शाह बंधुआ-गुलाम बनाने का फरसा चला रहे हैं लेकिन दलील है कि विकल्प कहां है? कैसे यह समझ यह सामान्य बुद्धि नहीं कि विकल्प परिवर्तन है। वोट के दिन परिवर्तन का ठप्पा लगेगा तो अपने आप यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत में नया नेतृत्व उभरेगा। नया अवतार होगा। क्या ब्राह्मण-भूमिहारों को सनातनी हिंदू का, लोकतंत्र में चेंज से अपने आप रास्ता खुलने की हकीकत का सामान्य सत्व-तत्व भी नहीं मालूम? क्या फालतू बात कि तब नोटा दें। नहीं ब्राह्मण-भूमिहार-चाणक्य नोटा वाले नहीं, बल्कि चोटी खोल कर परिवर्तन, अहंकारी राजा को बदल देने का माद्दा दिखाने वाला सनातनी धर्म और साहस लिए हुए होते हैं।

बताओ ब्राह्मणों-भूमिहारों, क्या मैं गलत सोच रहा हूं?

साभार नया इंडिया

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