हरेली तिहार में गुड़ के चीले का भोग ।
साभार:श्री मीर अली मीर
छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध साहित्यकार
अपनी मेहनत से उपजी हरियाली के त्योहार को हरेली तिहार के रूप में मानना हमारे संस्कार रहे हैं। कृषि युग से ले कर आज तक हरियाली, हमारे तन-मन में छायित है। प्रकृति चक्र के मुताबिक ज्येष्ठ वैशाख की चिलचिलाती गर्मी में जब आषाढ़ की शीतल बूंदें गिरती है, तब मिट्टी की सौंधी सुगंध को मन में बसाए लोग हरियाली की कल्पना में डूब जाते हैं। वैसे तो वैशाख का अक्ती(अक्षय तृतीया), आषाढ़ का रजुतिया(रथयात्रा) और श्रावण मास का हरेली, किसान, मजदूर और पौनी-पसारी के प्रमुख त्योहार प्रतीत होते हैं, तभी तो नांगर की मूठ लिए किसान, अपनी मेहनत से धरती का ऋंगार करता है।
लगातार मेहनत के बाद शरीर में पसरी थकान को दूर करने, मन में उत्सव और मंगल की कामना रहती है। उत्सव और मंगल, ख़ुशहाली लाते हैं, तन-मन में नवांकुर के बीज स्फुटित होते हैं। खेती-किसानी में जीवन का सार समाहित है, पसीने की महक से सुगंधित काया, अलग आनंद देती है।
करत किसानी चले ला नांगर पेरत रहिबे जिनगी भर जांगर।
हरेली, अमावस्या के अंधकार को चीर कर, जीवन को नव प्रकाश से आलोकित करने का संदेश देती है।
सभी के मन को मोह लेती है हरियाली-
गौधन हमारी कृषि संस्कृति का आधार रहा है। अन्न उपजाने से ले कर, उसे कोठी में सहेजने तक, हमारी लोक परम्पराओं को हमें सहेज कर रखना है।
हरेली में-(1) हरेली के दिन जड़ी-बूटी मिश्रित चांवल के आटे की बनी लोई मवेशियों को खिलाई जाती है। इसका वैज्ञानिक पहलू यह है कि चौमास के दौरान मवेशी, किसी संक्रामक बीमारी से ग्रस्त न हो।
(2) जीविका के आधार हैं कृषि और पशुधन-यहाँ भूमि, जल, अग्नि और नभ हैं, तभी तो हरियाली से आच्छादित धरती पर नव-अंकुर की पूजा के विधान बनें।
(3) कृषि औजार-नांगर, कोप्पर, रापा, कुदारी, हंसिया समेत सभी कृषि उपकरणों को तालाब में ले जा कर इनकी सफाई की जाती है। साफ किए उपकरणों को तेल लगा कर घर के आँगन में तुलसी चौरा के समीप सजा कर इन पर हाथा दिया जाता है, तत्पश्चात् हुम-धूप दिखा कर गुरहा चीला का भोग लगाया जाता है। पूजा विधान में सादगी, छत्तीसगढ़ी संस्कृति के संस्कार और पहचान रहे हैं। चंदन, तिलक लगा कर पूजा-विधान सम्पन्न किया जाता है।
(4) राऊत, नाई, लोहार, धोबी और कोटवार, इन पाँचो की महत्ता हरेली तिहार में काफी बढ़ जाती है। नीम की कोमल-कोमल हरी डालियाँ, घरों के द्वारों पर सजी दिखाई पड़ती है, जिसके पीछे प्रकृति की हरियाली को घर-घर पहुँचाने का संदेश सन्निहित है। लोहार घर के मुख्य द्वार पर लोहे का कील गाड़ता है, और किसी प्रकार की विघ्न-बाधा न आए, ऐसी कामना करता है।
(5) सवनाही- बारिश की वजह से फैलने वाली संक्रामक बीमारियों से रक्षा की मंशा से, गौठान में गोबर का घेरा बनाया जाता है। तंत्र-मंत्र और टोटकों से रक्षा करने दीवार पर बिजूका बनाने की परंपरा भी प्रचलित है। कहीं-कहीं तंत्र-मंत्र लौटाने की परंपरा भी की जाती हाई।
(6) गेड़ी का मजा-प्रकृति प्रदत्त साधन जिसमें बांस की लकड़ी, बांस का कील और पटसन की डोरी से गेड़ी तैयार किया जाता है। सम्भवतः पहले के समय में बारिश और कीचड़ की वजह से सर्प और बिच्छू जैसे जीवों से बचने के लिए गेड़ी का इस्तेमाल किया जाता रहा होगा, जो धीरे-धीरे प्रदेश में हरेली पर्व की घोतक बन गई। पर आज कल खेल-खेल में गेड़ी मचने का अलग ही मजा है। खेलते-खेलते पानी पिलाने का प्रयास करना, एक गेड़ी को कंधे पर रख कर एक ही पैर से गेड़ी पर चढ़ना, साहस का दर्शन कराता हैं, और छत्तीसगढ़ के किसान परिवार साहस के असल पर्याय है।
(7) बच्चों से ले कर बुजुर्गों तक सभी खेल में मग्न दिखाई पड़ते हैं। नारियल फेकने पर शर्त लगाना, नारियल के भेले से फल निकालना, फुगड़ी, खो-खो, कबड्डी जैसे खेल और स्वादिष्ट पकवान, हरेली का असली मजा देते हैं।
(8) पकवानों में चीला, चौसेला, बाबरा और बरा का स्वाद तो पूछो ही मत।
(9) छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद हमारे संस्कृति व संस्कारों को बढ़ावा दे कर छत्तीसगढ़ सरकार, “गढ़बो नवा छत्तीसगढ़” की परिकल्पना को साकार कर रही है।