रथयात्रा के दौरान भगवान स्वयं चलकर भक्तों के पास आते हैं और सभी कष्ट हरते है

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भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का आयोजन आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की द्वितीया को किया जाता है। इस वर्ष यह दिन 4 जुलाई को पड़ रहा है। इस दिन ओडिशा के पुरी नामक स्थान और गुजरात के द्वारका पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा बड़ी धूमधाम से निकाली जाती है। यही नहीं अब तो देशभर में भगवान जगन्नाथ के भक्तों द्वारा भव्य रथयात्राओं को निकाला जाता है लेकिन फिर भी पुरी और द्वारका की रथयात्राओं की भव्यता और शोभा की बात ही निराली है। रथयात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ स्वयं चलकर जनता के बीच आते हैं और सुख दुख के सहभागी बनते हैं। भगवान श्रीजगन्नाथजी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जिसको ग्रहण करने के लिए सभी भक्त बेहद उतावले रहते हैं। मान्यता है कि श्रीजगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य जी ने दिया था।
रथयात्रा उत्सव बढ़ा देता है श्रद्धालुओं का उत्साह
रथयात्रा उत्सव के दौरान श्रद्धालुओं का भक्ति भाव देखते ही बनता है क्योंकि जिस रथ पर भगवान सवारी करते हैं उसे घोड़े या अन्य जानवर नहीं बल्कि श्रद्धालुगण ही खींच रहे होते हैं। पुरी में श्री जगदीश भगवान को सपरिवार विशाल रथ पर आरुढ़ कराकर भ्रमण करवाया जाता है फिर वापस लौटने पर यथास्थान स्थापित किया जाता है।
रथों की विशेषताएँ
शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक हैं भगवान जगन्नाथ। रथयात्रा उत्सव की तैयारियां महीनों पहले से शुरू कर दी जाती हैं और रथयात्रा वाले दिन श्रद्धालु व्रत रखते हैं और उत्सव मनाते हैं। पुरी में जिस रथ पर भगवान की सवारी चलती है वह विशाल एवं अद्वितीय है और इसका आध्यात्मिक और पौराणिक दृष्टि से विशेष महत्व भी है। भगवान जगन्नाथ का रथ 45 फुट ऊंचा, 35 फुट लंबा तथा इतना ही चौड़ाई वाला होता है। इसमें सात फुट व्यास के 16 पहिये होते हैं। इसी तरह बलभद्र जी का रथ 44 फुट ऊंचा, 12 पहियों वाला तथा सुभद्रा जी का रथ 43 फुट ऊंचा होता है। इनके रथ में भी 12 पहिये होते हैं। प्रतिवर्ष नए रथों का निर्माण किया जाता है। भगवान जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार पर बैठकर जनकपुरी की ओर रथयात्रा करते हैं। जनकपुरी में तीन दिन का विश्राम होता है जहां उनकी भेंट श्री लक्ष्मीजी से होती है। इसके बाद भगवान पुनः श्री जगन्नाथ पुरी लौटकर आसनरुढ़ हो जाते हैं। दस दिवसीय यह रथयात्रा भारत में मनाए जाने वाले धार्मिक उत्सवों में महत्वपूर्ण स्थान रखती है और इसमें देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं।
सौ यज्ञों के बराबर है रथयात्रा का पुण्य
भगवान श्रीकृष्ण के अवतार ‘जगन्नाथ’ की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। जगन्नाथ जी का रथ ‘गरुड़ध्वज’ या ‘कपिलध्वज’ कहलाता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे ‘त्रैलोक्यमोहिनी’ या ‘नंदीघोष’ रथ कहते हैं। बलराम जी का रथ ‘तलध्वज’ के नाम से पहचाना जाता है। रथ के ध्वज को ‘उनानी’ कहते हैं। जिस रस्सी से रथ खींचा जाता है वह ‘वासुकी’ कहलाता है। सुभद्रा का रथ ‘पद्मध्वज’ कहलाता है। रथ ध्वज ‘नदंबिक’ कहलाता है। इसे खींचने वाली रस्सी को ‘स्वर्णचूडा’ कहा जाता है।
रथयात्रा शुरू होने से पहले की प्रक्रिया
पुराने राजाओं के वंशज पारंपरिक ढंग से सोने के हत्थे वाली झाडू से ठाकुर जी के प्रस्थान मार्ग को साफ करते हैं उसके बाद ही मंत्रोच्चार एवं जयघोष के साथ रथयात्रा शुरू होती है। सबसे पहले भगवान बलभद्र का रथ तालध्वज के लिए प्रस्थान करता है। थोड़ी देर बाद देवी सुभद्रा की यात्रा शुरू होती है। उसके बाद श्रद्धालु भगवान जगन्नाथ जी के रथ को बड़े ही श्रद्धापूर्वक खींचते हैं। मान्यता है कि रथयात्रा में सहयोग करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसीलिए रथयात्रा के समय श्रद्धालुओं के बीच रथ की रस्सी को खींचने की होड़ लगी रहती है। भगवान जगन्नाथ की यह रथयात्रा गुंडीचा मंदिर पहुंचकर संपन्न होती है। ‘गुंडीचा मंदिर’ वहीं पर स्थित है जहां भगवान विश्वकर्मा जी ने तीनों देव प्रतिमाओं का निर्माण किया था। यह भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। यहां भगवान जगन्नाथ एक सप्ताह प्रवास करते हैं और इस दौरान यहीं पर उनकी पूजा की जाती है। आषाढ़ शुक्ल दशमी के दिन जगन्नाथ जी की वापसी यात्रा शुरू होती है। शाम तक रथ जगन्नाथ मंदिर पहुंच जाते हैं लेकिन प्रतिमाओं को उसके अगले दिन मंत्रोच्चार के साथ मंदिर के गर्भगृह में फिर से स्थापित किया जाता है।

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