वनाधिकार के दावे और भूमि की मान्यता देने में छत्तीसगढ़ का देश में दूसरा स्थान

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राज्य में 4 लाख व्यक्तिगत और 24 हजार सामुदायिक वनाधिकार के पत्रक वितरित

व्यक्तिगत दावों में 3.42 लाख हेक्टेयर और सामूहिक दावों में 9.50 लाख हेक्टेयर वन भूमि की मान्यता प्रदत्त

मुख्यमंत्री श्री बघेल के निर्देश पर अस्वीकृत दावों के निराकरण की प्रक्रिया शुरू

रायपुर — अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य परंपरागत वन निवासियों को उनके द्वारा काबिज वन भूमि की मान्यता देने के मामले में छत्तीसगढ़ पूरे देश में दूसरा राज्य बन गया है। राज्य में 4 लाख से अधिक व्यक्तिगत वन अधिकार पत्रकों का वितरण कर 3 लाख 42 हजार हेक्टेयर वनभूमि पर मान्यता प्रदान की जा चुकी है वहीं सामुदायिक वनाधिकारों के प्रकरणों में 24 हजार से अधिक प्रकरणों में सामुदायिक वनाधिकार पत्रकों का वितरण करते हुए 9 लाख 50 हजार हेक्टेयर भूमि पर सामुदायिक अधिकारों की मान्यता दी गई है।
भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वनाधिकार पत्रकों के वितरण के मामले ओडिशा और वन भूमि की मान्यता प्रदान करने के मामले में महाराष्ट्र राज्य पहले नंबर पर है जबकि इन दोनो ही मामलें में छत्तीसगढ़ राज्य का पूरे देश में दूसरा स्थान है। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने कार्यभार संभालते ही 23 जनवरी को वन अधिकारों को लेकर राजधानी रायपुर में राज्य स्तरीय कार्यशाला का आयोजन कर इसके क्रियान्वयन की समीक्षा की। मुख्यमंत्री ने कहा कि सभी पात्र दावाकर्ताओं को उनका वनाधिकार मिले यह राज्य सरकार ही प्राथमिकता है । इसके साथ ही पर्याप्त संख्या में प्रत्येक गांव में निवासियों को वनभूमि पर वर्णित सामुदायिक अधिकार जैसे निस्तार का अधिकार, गौण वन उत्पादों पर अधिकार, जलाशयों में मत्स्य आखेट तथा उत्पाद के उपयोग, चारागाह का उपयोग, सामुदायिक वन संसाधन का अधिकार आदि प्राप्त हो सके। मुख्यमंत्री श्री बघेल इसके साथ ही 30 मई को बस्तर संभागीय मुख्यालय जगदलपुर में और 3 जून को सरगुजा संभागीय मुख्यालय अंबिकापुर में वनाधिकार की संभागीय कार्यशालाओं में स्वयं उपस्थित होकर इसके क्रियान्वयन को लेकर मार्गदर्शन दिया ताकि मैदानी स्तर पर कार्यरत अमलों का उत्साहवर्धन हो सके।
इन कार्यशालाओं में प्रदेश के मंत्रीगण, सांसद-विधायकगण, प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ वन अधिकारांे के क्षेत्र में कार्यरत अशासकीय संगठनों के प्रतिनिधि भी उपस्थित रहें। कार्यशाला में यह बात उभर सामने आयी की प्रक्रियागत कमियों की वजह से बड़ी संख्या में वन अधिकार के दावे निरस्त हुए है। इस पर मुख्यमंत्री श्री बघेल ने अस्वीकृत आवेदनों की समीक्षा करने और अन्य परंपरागत वन निवासियों को भी पात्रतानुसार वनाधिकार प्रदान करने के साथ ही पर्याप्त संख्या में सामुदायिक वनाधिकारों को मान्यता देने के लिए विशेष प्रयास करने के निर्देश दिए थे। मुख्यमंत्री ने सबसे निचले स्तर पर कार्यरत वन अधिकार समितियों के सशक्तिकरण पर भी बल दिया है।
जिसके फलस्वरूप प्रदेश के मुख्य सचिव द्वारा सभी जिला कलेक्टरों को वन अधिकारों के समुचित क्रियान्वयन के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी कर दिए गए है। जिसमें ग्राम स्तर पर वन अधिकार समितियों के पुनर्गठन करने को कहा गया है। इसके साथ ही अनुभाग और जिला स्तरीय समितियों के गठन के लिए राज्य शासन द्वारा आदेश जारी कर कर दिया गया है। इन समिमियों के पुनर्गठन और इनके प्रशिक्षण के बाद प्राप्त सभी दावों पर पुनर्विचार कर उनका निराकरण किया जाएगा। पहले चरण में उन दावों को लिया जाएगा जिन्हें पूर्व में अस्वीकृत किया गया है। प्रदेश में ऐसे दावों की संख्या 4 लाख से भी अधिक है। दूसरे चरण में ऐसे दावों की समीक्षा की जाएगी जिनमें वन अधिकार पत्रक वितरित तो किए गए है किन्तु दावा की गई भूमि और मान्य की गई भूमि के रकबे में अंतर है।
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ जनजाति बाहुल्य राज्य है। राज्य की कुल जनसंख्या का 32 प्रतिशत से अधिक संख्या जनजातियों की है। प्रदेश में निवासरत अनुसूचित जनजातियां जल, जंगल, जमीन से नैसर्गिक तथा परंपरागत रूप से सदियों से जुड़ी रही है और अपनी सांस्कृतिक पहचान के रूप में इनकी रक्षा और संरक्षण भी करती रहीं है। परंपरागत रूप से अपनी आजीविका और निवास के रूप में वन भूमि पर पीढ़ियों से काबिज है। ऐसे स्थानीय समुदायों को काबिज भूमि पर मान्यता देने के लिए और उनके अधिकारों को अभिलिखित करने के उद्देश्य से वन अधिकार अधिनियम-2006 लागू किया गया है।

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